स्वर्ण यक्षिणी...( भाग - 1 )
" सुभ्द्र तुम एक बार पुन: विचार कर लो । जो तुम करने जा रहे हो वो कोई निम्न शक्ति नहीं है । जिसे तुम सिध्द करके अपनी इच्छापूर्ति के लिए उसे वचनबद्ध करोगे । वो शक्ति साक्षात मृत्यु का दूसरा रूप है सुभ्द्र । उसका रूप स्वंय कामदेव को भी विचलित कर दे तो तुम मात्र एक साधक हो । तुम कैसे उसके आकर्षण से अपने आपको सुरक्षित कर पाओगे । यही मेरी चिंता का कारण है पुत्र , तुम्हें पुनः इस पर विचार करने की आवश्यकता है । " एक अस्सी वर्षीय बुजुर्ग जिनका नाम वरभद था उन्होने सुभ्द्र से कहा ।
सुभ्द्र : " मैंने विचार कर लिया है नानाजी । इस तरह एक - एक वस्तु के लिए तरसते हुए जीने से अच्छा है कि , मैं अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से उस स्वर्ण यक्षिणी का आवाहन कर उसे सिद्ध कर अपनी दरिद्रता का अंत करूं । "
सुभ्द्र के दृढ़ निश्चय को देखते हुए वरभद ने कहने लगे । वरभद : " अगर तुमने निश्चय कर ही लिया है , तो मैं तुम्हें नहीं रोकुंगा । लेकिन ध्यान रहे सुभ्द्र , तुम जिस स्वर्ण यक्षिणी की साधना करने जा रहे हो । उसके विषय में कुछ गुप्त निर्देश मैं तुम्हें दे रहा हूं । जिससे तुम्हें अपने मस्तिष्क पर नियंत्रण करने में सहायता मिलेगी । "
सुभ्द्र : " निर्देश ! कैसे निर्देश नानाजी ? "
वीरभद : " सुभ्द्र मेरी बात ध्यान से सुनो ! "
वीरभद , सुभ्द्र को एक - एक सारे नियम समझाने लगे । जिसे सुभ्द्र ध्यानपूर्वक सुनकर समझने का प्रयास करने लगा । सारे नियम और निर्देश समझने के पश्चात वो अपने नाना जी आशीर्वाद लेकर वो निकल पड़ा । उस नितंजला के भयानक वन की ओर । उसे जाते हुए देखकर वीरभद के माथे पर बल पड़ आएं और वो सोचने लगे ।
वीरभद : " पुत्र सुभ्द्र तुम्हारा यूं जाना मुझे उचित जान नहीं पड़ता । तुम एक आकर्षक नवयुवक हो । मुझे भय है कि , कहीं तुम उस कामायनी के प्रति आकर्षित हो गये तो तुम्हारी मृत्यु अटल हो जायेगी । हे भगवती जगदंबा सुभ्द्र के प्राणों की रक्षा करना । "
वीरभद मां पराशक्ति से सुभ्द्र की रक्षा हेतु प्रार्थना करने और साथ ही संध्या पूजन के लिए अपने पूजन कक्ष में प्रवेश कर संध्या पूजन करने लगे ।
इंद्रप्रस्थ एक ऐसी जगह या इलाका जहां धनी व्यक्तियों का राज चलता था । धनाढ्य व्यक्ति निर्धन लोगों से घृणा करते थे । साथ ही उनके साथ अमानवीय व्यवहार भी किया जाता था । इन सबसे परेशान और सुभ्द्र स्वर्ण यक्षिणी सिद्ध कर इस संसार का सबसे धनवान पुरूष बनना चाहता था । सुभ्द्र का अपने नाना के सिवाए कोई संबंधी नहीं था । जिसे सुभ्द्र अपने मन की व्यथा कहता । उसके जन्म लेने के कुछ क्षण उपरान्त ही सुभ्द्र की माता का देहांत हो गया था । सुभ्द्र का लालन - पालन उसकी नानी कांतादेवी ने की थी । सुभ्द्र के पूर्वज उच्च साधक थे । उनके पूर्वजों ने अनेक साधनाएं सम्पन्न की थी । उन्हीं में से एक थी " स्वर्ण यक्षिणी " साधना जिसे सुभ्द्र सम्पन्न करने हेतु आतुर था ।
उसने अपनी जरूरत के अनुरूप कुछ सामान की एक पोटली बनाई और सूरज के डूबने के साथ ही सुभ्द्र अपने गांव की सीमा पार कर चुका था । रात के अंधेरे में भी वो तेज कदमों से चलते हुए । वो अपने गांव से बहुत दूर निकल जाना चाहता था । सुभ्द्र को अंधेरी रात का भय भी नहीं सता रहा था । उसका पूरा अपने लक्ष्य की ओर था और उसका लक्ष्य था । नितंजला का भयावह वन , जिसके बारे में ये भ्रांति फैली थी कि , अगर कोई मनुष्य उस वन में गलती से भी प्रवेश कर गया तो उसका वहां से जीवित निकलना नामुमकिन होगा ।
उस वन में भयानक जीव - जन्तुओं के साथ - साथ वहां कुछ ऐसी शक्तियां भी हैं । जो वहां जाने वालों को जीवित नितंजला वन से बाहर जाने नहीं देती थी । सुभ्द्र एक सत्रह वर्षीय नवयुवक था । जिसने कुछ साधनाएं सम्पन्न कि थी । उसे अपने पूर्वज की शक्ति पर और अपनी साधनाओं पर पूरा विश्वास था कि , वो ये साधना भी सम्पन्न कर लेगा और इसी विश्वास के चलते कुछ दिनों हफ्तों की पद यात्रा के बाद वो नितंजला वन में प्रवेश कर गया था ।
वन में प्रवेश करते ही एक तेज आंधी उसकी ओर वेगपूर्ण बढ़ने लगी । सुभ्द्र ने अपनी आंखें बंद कर ली और अपने इष्ट को याद किया । आंधी आयी और उसे छूकर गुजर गयी । सुभ्रद कई हफ्तों की यात्रा के बाद काफी थक गया था । थककर चूर सुभ्द्र वहीं एक पेड़ की छांव में आंखें बंद कर बैठ गया । उसे विश्राम करते कुछ ही पाक्षण बीते थे कि , कहीं से उसे हंसने की आवाजें आने लगी ।
" हा..हा..!! हे मनुष्य तुमने जिस इच्छा से इस मायावी वन में प्रवेश किया है । उसे पूरा किए बिना ही तुम शक्तिहीन हो गये । कदाचित तुम शक्तिहीन के साथ - साथ कार्यहीन भी हो । मैं तुम्हें इस चेतावनी देती हूं । अपनी प्राणों की रक्षा हेतु तुम अभी इसी वन से गमन कर जाओ । अन्यथा तुम्हारी मृत्यु निश्चित है । " उस मायावी वन की रक्षिका ने एक डरावनी आवाज में सुभ्रद से कहा ।
एक पल को ऐसी भयावह आवाज सुनकर सुभ्द्र की सांसें डर से तेज - तेज चलने लगी थी । लेकिन उसने अपने डर को नियंत्रित करते हुए कहने लगा ।
सुभ्रद : " तुम जो कोई भी हो । मैं ऋषि कालाग्नि का प्रपौत्र एवं वरभद का पौत्र सुभ्द्र हूं । मैं यहां के किसी भी प्रकार की मायावी शक्तियों से भयाकुल होकर यहां से प्रस्थान नहीं करूंगा । मैं जिस महत्वपूर्ण कार्य के लिए यहां आया हूं । उसे सिद्ध करके ही यहां से प्रस्थान करूंगा । "
सुभ्द्र ने अपने आसपास देखते हुए कहा और वो उस भयावह वन के भीतर चला गया । जहां उसे तलाश थी नील नदी की । सुभ्द्र की तलाश खत्म होने वाली थी । क्योंकि वो नील नदी के पास पहुंच चुका था । लेकिन अभी एक और खतरा वहां सुभ्द्र के आने का इंतजार कर रहा था ।
क्रमश:
Arti khamborkar
19-Dec-2024 03:57 PM
nice one
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Gunjan Kamal
11-Apr-2024 03:48 PM
Nice one
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Babita patel
07-Apr-2024 11:33 AM
V nice
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